Monday, April 21, 2025

22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस पर विशेष -

भारतीय संस्कृति में निहित प्रकृति संरक्षण की अवधारणाओं को बनाना होगा जीवन -शैली का अंग: डाॅ० गणेश पाठक
  पूरे विश्व के देशों में प्रत्येक वर्ष 22 अप्रैल को अनियोजित एवं अनियंत्रित विकास तथा मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न संकट से पृथ्वी  को बचाने हेतु पृथ्वी दिवस मनाया जाता है, जिसका मुख्य उद्देश्य जागरूकता पैदा करना है। पृथ्वी दिवस पर प्रत्येक वर्ष के लिए अलग - अलग थीम निर्धारित की जाती है, जिसके आधार पर पूरे वर्ष कार्यक्रम चलाए जाते हैं एवं मानव को जागरूक किया जाता है कि है।मानव यदि अभी से भी नहीं चेतेगा तो पृथ्वी का विनाश निश्चित है। 

   ऊर्जा उपभोग एवं संरक्षण -
  इस वर्ष, 2025 की पृथ्वी दिवस की थीम है "हमारी शक्ति, हमारा ग्रह"। यहां पर शक्ति  से तात्पर्य ऊर्जा से है। हमें प्राकृतिक तत्वों के साथ - साथ ऊर्जा  संरक्षण करना भी अति आवश्यक है। हम जानते हैं कि परम्परागत ऊर्जा के स्रोत सीमित हैं, जो भविष्य में कुछ ही वर्षों में समाप्त हो जायेंगें। कोयला, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस समाप्ति के कगार पर हैं। जल विद्युत पर भी बहुत दिन तक निर्भर नहीं रहा जा सकता। अत: एक तरफ जहां हमें ऊर्जा का संरक्षण करना होगा, वहीं दूसरी तरफ ऊर्जा के गैर परम्परागत स्रोतों- सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, समुद्री लहरों से उत्पन्न ऊर्जा, भू- तापीय ऊर्जा, बायोगैस एवं बायोमास ऊर्जा एवं परमाणु ऊर्जा का विशेष तौर पर विकास करना होगा। ऊर्जा के गैर परम्परागत स्रोतों से पर्यावरण प्रदूषण भी कम होगा। खासतौर से सौर ऊर्जा अक्षय ऊर्जा का स्रोत है, जिसका समुचित विकास आवश्यक है। 

            डॉ गणेश कुमार पाठक पर्यावरणविद 

     वर्तमान समय में भारत में गैर परम्परागत ( नवीकरणीय) ऊर्जा स्रोत का विकास तेजी से हो रहा है, किंतु अभी भी इस विकास में तेजी लानी होगी। वर्तमान समय में भारत में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, हाइड्रो ऊर्जा , बायोमास एवं बायोगैस ऊर्जा तथा लघु जल विद्युत ऊर्जा की क्षमता क्रमश: 90.76 गीगावाट, 47.36 गीगावाट, 46.92 गीगावाट, 11.32 गीगावाट एवं 15.07 गीगावाट है, जो कुल नवीकरणीय ऊर्जा का क्रमश: 45.1 प्रतिशत, 23.5 प्रतिशत, 23.3 प्रतिशत, 5.6 प्रतिशत एवं 2.5 प्रतिशत है। भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति इन नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का विकास कर ही किया जा सकता है।

पृथ्वी  को विनष्ट होने से बचाना है तो करना होगा प्रकृति का संरक्षण  -
   मानव इस सृष्टि का सबसे महत्वपूर्ण एवं क्रियाशील प्राणी है। वह स्वयं एक सर्वश्रेष्ठ संसाधन हैं एवं संसाधन निर्माणकर्ता भी है। मानव अपने विकास हेतु सतत् क्रियाशील रहा है एवं अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रकृति का सतत् दोहन एवं शोषण करता रहा है। प्रकृति में निहित सभी सम्भावनाओं का मानव द्वारा भरपूर उपभोग किया गया। प्राकृतिक संसाधनों में वनों का तेजी से विनाश किया गया। विश्व में प्रतिवर्ष औसतन 47 लाख हेक्टेयर जंगलों का विनाश हो रहा है। 10,000 वर्ष पू्र्व धरती के 600 करोड़ हेक्टेयर भू -भाग पर जंगल था। वर्तमान समय में मात्र 400 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पर ही जंगल बचा है। 2015 से 2020 के दौरान प्रतिवर्ष 1 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र से जंगल का सफाया हुआ है। स्थलीय प्रजातियों का 80 प्रतिशत हिस्सा जंगलों में ही रहता है। जंगल कटने से इन स्थलीय प्रजातियों पर संकट के बादल मॅडराने लगे हैं एवं अनेक प्रजातियां विलुप्त होती जा रही हैं। आइयूसीएन के रेड डाटा बुक के अनुसार 142,500 प्रजातियों में से 40,000 के विलुप्त होने का खतरा है, जो ज्ञात प्रजातियों का 28 प्रतिशत हिस्सा है। धरती से 900 प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं, जिनमें से पक्षी, स्तनधारी, मछलियों, उभयचरों एवं सरीसृप की क्रम: 159,  85, 80, 35 एवं 30 प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। विगत 50 वर्षों के दौरान मानव खपत, नगरीकरण, जनसंख्या वृद्धि एवं व्यापार वृद्धि के कारण जानवरों की संख्या में 70 प्रतिशत की कमी आई है। 

       ग्रीन हाउस प्रभाव एवं ओजोन परत क्षरण से धरती पर वैश्विक तापन का खतरा मॅडराने लगा है। तापवृद्धि के कारण जलवायु परिवर्तन में तेजी से वृद्धि हो रही है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हमारी कृषि व्यवस्था पर पड़ रहा है , जिससे उत्पादन एवं उत्पादकता हदोनों में कमी आ रही है। जल स्रोतों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहि है। ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। मौसम में तेजी से बदलाव आ रहा है। बीमारियों में वृद्धि हो रही है। स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है एवं  इसका प्रभाव हमारे दैनिक जीवन पर भी स्पष्ट दिखलाई  दे रहा है।

    उपर्युक्त परिस्थितियों के चलते प्रकृति में असंतुलन की  स्थिति उत्पन्न होने लगी है, जिसके चलते हमारा सम्पूर्ण पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित होता जा रहा है। मानव द्वारा किया गया अनियोजित एवं अनियंत्रित विकास अब विनाश की तरफ अग्रसर हो रहा है,जो अब हमें विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं एवं बीमारियों के रूप में परिलक्षित होने लगा है। 

   हमारा पर्यावरण एक वृद्ध मशीन की तरह है एवं समस्त पेड़ - पौधे व प्राणी जगत इसके जीवन के पेंच एवं पूर्जे हैं। मानव की भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन के चलते पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी में इतना अधिक असंतुलन उत्पन्न होता जा रहा है कि न केवल मानव जीवन, अपितु सम्पूर्ण पादप जगत एवं जीव -जंतु जगत का अस्तित्व संकट में पड़ता जा रहा है। कारण कि हमारे सभी प्राकृतिक संसाधन- वन, भूमि, जल, जीव, वायु, खनिज आदि समाप्ति के कगार पर पहुंच चुके हैं। जो बचे हैं, वो इतने प्रदूषित हो गए हैं कि मानव के जीवन, स्वास्थ्य एवं कल्याण स्रोतों के समक्ष अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। प्रकृति में हो रहे असंतुलन के कारण धरती का जीवन - चक्र भी समाप्त होता नजर आ रहा है। प्रकृति के बढ़ते असंतुलन के कारण बाढ़,सूखा,भू- स्खलन, मृदा अपरदन, मरूस्थलीयकरण, भूकम्प, ज्वालामुखी, सुनामी, ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन जैसी प्राकृतिक आपदाएं उत्पन्न होकर हमारा अस्तित्व मिटाने पर तत्पर हैं। 

 इसके अतिरिक्त अनेक मानव जनित आपदाएं, जैसे- भू-स्खलन, भू-अपरदन, बाढ़, परिवहन दुर्घटनाएं, आतंकवाद, तकनीक आपदाएं, रासायनिक आपदाएं, परमाणु विस्फोट, जनसंख्या विस्फोट, कुपोषण, जैविक बीमारियां आदि भी भयंकर रूप धारण कर मानव के ही अस्तित्व को मिटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं एवं "हम ही शिकारी, हम ही शिकार" वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। प्रश्न यह उठता है कि आखिर मानव के समक्ष उत्पन्न संकट एवं  प्राकृतिक असंतुलन को  को कैसे रोका जाय, जिससे कि पृथ्वी के अस्तित्व को विनष्ट होने से बचाया जा सके।

    यह भी सत्य है कि हम विकास को भी नहीं रोक सकते। ऐसे में हमें एक ही रास्ता दिखाई देता है कि यदि हम सनातन संस्कृति एवं भारतीय परम्परागत ज्ञान परम्परा में निहित अवधारणाओं के अनुसार प्रकृति के अनुसार व्यवहार करें, उसके अनुसार अपनी जीवन शैली एवं जीवन चर्या को अपनाएं तो निश्चित ही हम प्रकृति को भी बचा सकते हैं, प्रदूषण को भी भगा सकते हैं एवं पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी संतुलन भी बनाए रख सकते हैं। क्यों कि सनातन संस्कृति अर्थात् हमारी भारतीय संस्कृति में प्रकृति संरक्षण की मूल संकल्पना छिपी हुई है। भारतीय संस्कृति अरण्य संस्कृति एवं प्रकृतिपूजक संस्कृति है,जिसमें हम प्रकृति के सभी कारकों में देवी - देवताओं का वास मानकर उनकी पूजा करते हैं। भारतीय संस्कृति में प्रकृति के पांच मूल-भूत तत्वों- धरती, जल, अग्नि, आकाश एवं वायु का भी पूजा का विधान बनाया गया है। ऊर्जा के अजस्र स्रोत 'सूर्य' की भी हम पूजा करते हैं। सभी उपयोगी वृक्षों पर भी देवी- देवता का वास मानकर उनकी पूजा का विधान बताया गया है ताकि उनकी रक्षा हो सके। सभी जीव- जंतुओं को देवी - देवता का वाहन बना दिया गया है, जिससे कि जीव -जंतुओं को कोई नुक्सान न पहुंचा सके।

   हम भगवान की पूजा करते हैं और भगवान में पांच शब्द है- भी, ग, व, अ एवं न, जिनका मतलब होता है क्रमश: भूमि, गगन, वायु, अग्नि एवं नीर। अर्थात प्रकृति के जो पांच मूल-भूत तत्व हैं - "क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर", इन्हीं पांच तत्वों की पूजा हम भगवान के रूप में करते हैं। मानवोपयोगी एवं प्रकृति संरक्षण से जुड़ी ऐसी अवधारणाएं विश्व में कहीं नहीं मिलती हैं। ये सभी अवधारणाएं हमारे भारतीय वांगमय- वेद, पुराण, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ, मनुस्मृति, चरक संहिता, धर्मसूत्र, रामायण, महाभारत सहित अनेक संस्कृत ग्रंथों में भरी पड़ी हैं।

  यही नहीं यदि हम भारतीय परम्परागत ज्ञान परम्परा को देखें तो हमारे परम्परागत ज्ञान परम्परा में ऐसी मानवोपयोगी एवं प्रकृति संरक्षण संबंधी अवधारणाएं निहित हैं, जिनका अनुपालन कर मानव न केवल अपना हितलाभ कर सकता है, प्रकृति एवं पर्यावरण की सुरक्षा एवं संरक्षा करने में भी अहम् भूमिका निभा सकता है। हमारे जो भी रीतिरिवाज, परम्पराएं, प्रथाएं, उत्सव, त्यौहार, कहावतें, लोकोक्तियां एवं लोकगीत हैं, सबमें ऐसी विचारधाराओं का समावेश है, जिनका अनुसरण कर मानव न केवल अपना भला कर सकता है, बल्कि प्पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी अर्थात् सम्पूर्ण प्रकृति की रक्षा कर पादप जगत एवं जीव- जंतु जगत की भी रक्षा कर अपना संतुलित विकास करते हुए "सर्वे भवन्तु सुखिन, सर्वे संतु निरामया" एवं "वसुधैव कुटुम्बकम्" की उद्दात भावना से संपृक्त होकर न केवल भारत , बल्कि विश्व के कल्याण के लिए भी अग्रसर होगा।

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