Sunday, September 25, 2022

राष्ट्रवादी विचारधारा के संवादी थे पं दीनदयाल उपाध्याय: सुभाष जी

जयंती पर आयोजित हुई 'पं दीनदयाल उपाध्याय के विचारों की प्रासंगिकता' विषयक गोष्ठी 
बलिया। पं दीनदयाल उपाध्याय शोधपीठ के तत्वावधान में श्रद्धेय पंडित दीनदयाल जी की जयंती के अवसर पर जननायक चन्द्रशेखर विश्व विद्यालय के सभागार मे 'पं दीनदयाल उपाध्याय के विचारों की प्रासंगिकता' विषय पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसमे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गोरक्षप्रान्त के प्रांत प्रचारक सुभाष जी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे।सर्वप्रथम मुख्य अतिथि सुभाष जी व इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रही विश्वविद्यालय की कुलपति डॉ. कल्पलता पाण्डेय जी द्वारा भारत माता, माँ सरस्वती, पं दीनदयाल उपाध्याय जी व पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चन्द्रशेखर जी के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित कर व दीप प्रज्ज्वलित करने के बाद गोष्ठी का शुभारंभ हुआ। 
शोधपीठ के निदेशक डॉ. रामकृष्ण उपाध्याय जी द्वारा विषय की प्रस्तावना व्यक्त करने के बाद मुख्य अतिथि प्रान्त प्रचारक सुभाष जी का पाथेय प्राप्त हुआ। अपने उदबोधन में मुख्य अतिथि सुभाष जी ने पंडित दीनदयाल जी के व्यक्तित्व व कृतित्व का विस्तार से वर्णन करते हुए बताया कि आधुनिक काल के ऋषि और एकात्म मानववाद की अवधारणा के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का आज ही के दिन 25 सितम्बर सन 1916 को जन्म हुआ था। शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, अंत्योदय, दलित विमर्श आदि अनेक विषयों सम्बंधित उनके विचारों व चिंतन को रेखांकित किया जाना समीचीन है। पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय का संपूर्ण जीवन सरलता, सादगी एवं निरभिमान से ओतप्रोत रहा था। पंडित दीनदयाल उपाध्याय निष्कपट, चरित्रवान, प्रखर देशभक्त तथा लोक संग्रही होने के साथ ही सादे जीवन तथा सनातन राष्ट्रधर्मिता से संपन्न थे। वे यथा नाम तथा गुण को साकार करने वाले भारत माता के सपूत थे। उनका बाल्य जीवन संघर्ष पूर्ण था जो अभावों के मध्य बीता था। निम्न मध्य वर्ग में वे पैदा हुए थे और जब वह मात्र तीन वर्ष के थे तब उनके पिता दिवंगत हो गए और सात वर्ष की आयु में उनकी माता का साया भी उनके ऊपर उठ गया था। नाना के घर में उनकी प्राथमिक शिक्षा का प्रबंध हुआ था, पर दस वर्ष की आयु में वे भी परलोकवासी हो गए। इन सब विपत्तियों में उनसे दो वर्ष छोटे भाई शिवदयाल भी साथ थे। 18 वर्ष की आयु में काल ने एक बार फिर चोट देकर उनके छोटे भाई को भी उनसे छीन लिया। उन्नीस वर्ष की अवस्था तक उपाध्याय जी ने मृत्यु-दर्शन से गहन साक्षात्कार कर लिया था।
     उन्होंने आगे बताया कि पंडित जी बचपन से ही आत्मीयता को विस्तार देना सीख लिया था। यही कारण था कि एक के बाद एक आने वाली आपत्ति को वे अनदेखा कर हर स्तर के व्यक्ति से घुलने मिलने की कला में पारंगत हो गए थे। पद, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि और यश के पीछे उन्होंने कभी कोई दौड़ न लगायी। उनकी सादगी और कार्यकुशलता का यह परिणाम था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में वे जल्दी ही समस्त उत्तर प्रदेश के प्रभारी बन गए थे। अनासक्त और निष्काम कर्मयोगी स्वर्गीय पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने छात्र जीवन में ही अपनी प्रखर मेधा और मौलिक चिंतन की प्रतिभा से यह आभास दे दिया था कि वे अन्य सहपाठियों की भांति सांसारिक सुख सुविधा पूर्ण जीवन बिताने के लिए नहीं जन्मे हैं। उन्होंने उसी समय यह अनुभव कर लिया था कि उनका जीवन एक महान उद्देश्य के लिए है। वो हमेशा कहा करते थे कि भारत की उन्नति के दो आधार स्तम्भ है सादा जीवन उच्च विचार। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में सार्वजनिक कार्य क्षेत्र में उनका पदार्पण निश्चित ही उस समय भौतिक दृष्टि से कठोर ही रहा होगा। लेकिन एक बड़े उद्देश्य के निमित्त उन्होंने उसे प्रसन्नता से स्वीकार किया। अनेक वर्षों तक वे संघ के जिला एवं विभाग प्रचारक रहे बाद में प्रांत प्रचारक बने। संघ के माध्यम से ही उपाध्याय जी राजनीति में आए। सन 1950 में जब उन्होंने देखा कि देश शाश्वत व चिरंतन राष्ट्रीय धारा से विचलित हो रहा है, तो वे श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भारतीय आदर्शों पर आधारित पृथक राजनीतिक संगठन बनाने में सहयोग देने को तैयार हो गए। उन्होंने लखनऊ में उत्तर प्रदेश का एक सम्मेलन बुलाया और इक्कीस सितंबर उन्नीस सौ इक्यावन को श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में प्रादेशिक जनसंघ की स्थापना हुयी। इक्कीस अक्टूबर उन्नीस सौ इक्यावन को दिल्ली के भारतीय अधिवेशन में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने उन्हें महामंत्री नियुक्त कर दिया पंडित दिन दयाल जी 1967 तक अनन्य भाव से इस दायित्व का निर्वाह करते हुए एक सुदृढ़ राष्ट्र के संगठन से लगे रहे पर पद, आत्मप्रचार और प्रतिष्ठा की भूख से वे सदैव असंपृक्त रहे। हर प्रकार के दबाव के बाद भी उनका ओजस्वी व्यक्तित्व किसी प्रकार विचलित नहीं होता था। डॉ. मुखर्जी ने उनकी कार्यकुशलता और क्षमता से प्रभावित होकर एकबार कहा था की यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाएं, तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूं। 
उन्होंने आगे बताया कि पंडित दीनदयाल जी देश की राजनीति को सत्य- निष्ठा सामाजिक, राजनीतिक शुचिता तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा के अंतर्गत मानते थे। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, अतः संविधान के अनुच्छेद 370 के अंतर्गत कश्मीर को विशेष दर्जा देना असंगत मानते थे। जनसंघ का नारा था एक देश में दो विधान दो प्रधान दो निशान नहीं चलेंगे। समस्या का निदान पंथ सहिष्णुता व प्रखर राष्ट्रवाद में ही है। पंडित जी का समग्र चिंतन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परिधि में था। राजनीति के अलावा उनकी साहित्य में भी उनकी गहरी रुचि थी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने राष्ट्रधर्म (मासिक) और पाञ्चजन्य (सप्ताहिक) पत्रों की स्थापना के द्वारा देश में पत्रकारिता को नई दृष्टि दी। वह अजातशत्रु कहलाते थे और भारतीय मनीषा के सार- एकात्म मानववाद के माध्यम से वैश्विक चिंतन में एक सर्वथा मौलिक अवधारणा के जनक थे। उपाध्याय जी राष्ट्रवादी विचारधारा के संवादी थे। चाहे व्यक्ति से व्यक्ति के मध्य हो या भावों के प्रवाह का कोई स्तर हो, वे हर प्रकार के व्यक्ति से तादाम्य स्थापित कर लेते थे। भारतीय परंपरा के आधुनिक द्रष्टा के रूप में उन्होंने 'जगतगुरु शंकराचार्य' पर एक पुस्तक लिखी जो अत्यंत लोकप्रिय हुई। भारतीय दर्शन एवं संस्कृति की वैदिक आस्था से अन्योन्याश्रित संबंध को कैसे आत्मसात किया जाए इसका उदाहरण उनका 'एकात्म मानववाद' है। इसमें समाज, राजनीति व अर्थनीति को विकास और राष्ट्र निर्माण की कसौटी पर कसा गया था। यही कारण था कि दीनदयाल जी की नैतिक ईमानदारी के प्रशंसक डॉ राम मनोहर लोहिया व जयप्रकाश नारायण भी थे।
अपने अध्यक्षीय भाषण में जननायक विश्विद्यालय की कुलपति डॉ. कल्पलता पाण्डेय ने गुरुजनों को प्रणाम करते मुख्य अतिथि श्री सुभाष जी, उपस्थित लोगों को धन्यवाद देते हुए बताया कि अमृत महोत्सव के अवसर पर भारत को भी जानने की आवश्यकता है। उन्होंने उपस्थित लोगों से पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के आदर्शों पर चलने का आह्वान किया। उन्होंने पुण्य भूमि भारत की  व्याख्या करते हुए बताया कि पं दीनदयाल जी भारत को सांस्कृतिक राष्ट्र के बारे वर्णित किया है अर्थात, भारत को भौगोलिक बन्धनों में नहीं बंधा नहीं जा सकता।  एकात्मता के बारे में हमारे उपनिषदों में भी वर्णन है। हम जब भी बात करतें है तो विश्व की बात करते है। हम सभी प्रकृति से जुड़े है। हम गाय की पूजा करतें हैं, वनस्पतियों, जल, पहाड़ों की पूजा करते है। हम वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत को मानने वाले है अर्थात हम पूरे विश्व को अपना कुटुम्ब मानते हैं। पंडित दीनदयाल जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी जब हम आत्मनिर्भर भारत, एकनिष्ठ भारत के संकल्प को आत्मसात करेंगे।

कार्यक्रम के अंत में बलिया के दलित बस्ती में चलने वाली संस्कारशाला के माध्यम से निर्धन बच्चों को पढाने वाली पूजा, गुड़ीया व नेहा को तथा दो दिन पूर्व कराई गई सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता में प्रथम, द्वितीय व तृतीय स्थान प्राप्त  संस्कार केंद्र के बच्चों को पुरस्कृत किया गया। कार्यक्रम का संचालन शोधपीठ के निदेशक डॉ. रामकृष्ण उपाध्याय जी ने किया।

इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बलिया के मा.जिला संघचालक भृगु जी, सह जिला संघचालक डॉ. विनोद जी, परमेश्वरनश्री, सह प्रान्त कार्यवाह विनय, सह विभाग कार्यवाह संजय शुक्ल, विभाग प्रचारक तुलसीराम जी, चन्द्रशेखर पाण्डेय, शोधपीठ के सह निदेशकगण डॉ. रामशरण, डॉ. अनुराधा राय, डॉ. मनोज कुमार राय के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, अधिवक्ता परिषद, हिन्दू जागरण मंच, भारतीय जनता पार्टी के साथ विभिन्न संगठनों, समाज के गणमान्य व्यक्ति, विभिन्न विद्यालयों के छात्र-छात्राएं व मातृशक्तियाँ उपस्थित थीं।

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