प्रकृति को बचाने हेतु बदलनी होगी जीवनशैली: डा० गणेश षाठक
प्रकृति संरक्षण हेतु पूरे विश्व में तीन अक्टूबर को प्रतिवर्ष 'विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस' मनाया जाता है, जिसके लिए प्रतिवर्ष कोई न कोई विशेष थीम रखी जाती है। जिसको केन्द्रित कर पूरे वर्ष प्रकृति संरक्षण हेतु कार्यक्रम आयोजित किए जाते है। इस वर्ष की थीम है- "वन एवं आजीविका: मानव और ग्रह को कायम रखना"।
इस संदर्भ में जननायक चन्द्रशेखर विश्वविद्यालय बलिया के पूर्व शैक्षणिक निदेशक पर्यावरणविद् डा० गणेश पाठक ने एक भेंटवार्ता में बताया कि मानव एवं प्रकृति एक दूसरे के पूरक हैं। परस्पर समायोजन द्वारा ही प्रकृति को बचाकर पृथ्वी को विनष्ट होने से बचाया जा सकता है। डा० पाठक ने बताया कि हमें ऐसी जीवन शैली अपनानी होगी जो प्रकृति के अनुकूल हो। हमारी संस्कृति सनातन संस्कृति है, जिसके अन्तर्गत प्रकृति के सभी कारकों की सुरक्षा एवं संरक्षा का विधान बनाया गया है। हम प्रकृति के तत्वों को सुरक्षित एवं चिरस्थाई बनाए रखें,इसके लिए सनातन संस्कृति में सभी महत्वपूर्ण प्राकृतिक कारकों जैसे- महत्वपूर्ण वृक्षों,जल संसाधन, मिट्टी संसाधन,वायु एवं महत्वपूर्ण पशुओं तथा जीव जंतुओं को देवी- देवताओं से सम्बद्ध कर उनकी पूजा करने का विधान बना दिया गया, ताकि उनकी रक्षा हो सके। हम वृक्ष, मिट्टी, वायु,आकाश और अग्नि को देवता मानकर पूजा करते हैं।
हम भगवान की पूजा करते हैं और भगवान में पांच अक्षर हैं- भ,ग,व,अ एवं न। अर्थात् भ से भूमि,ग से गगन, व से वायु,अ से अग्नि एवं न से नीर । इस प्रकार प्रकृति के पांच मूलभूत तत्वों क्षिति, जल, पावक, गगन एवं समीर की पूजा ही भगवान के रूप में करते हैं और यही हमारी जीवन शैली है, जिसका विलोपन होता जा रहा है। प्रकृति की रक्षा हेतु हमें पुनःसनातन जीवन शैली को अपनाना होगा। हमें सादा जीवन - उच्च विचार का भाव रखना होगा। हमें ऐसी सुख- सुविधाओं को कम करना होगा, जिनसे प्रकृति को नुक़सान पहुंचा रहा है।। हमें माता भूमि: ,पुत्रो अहम् पृथिव्या: की भावना से ओत - प्रोत होकर प्रकृति के सभी कारकों की रक्षा करनी होगी।
हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहना होगा। प्रारम्भ से ही मानव प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग करता आ रहा है, किंतु जब तक मानव एवं प्रकृति का संबंध सकारात्मक रहा, तब तक पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी असंतुलन संबंधी कोई भी समस्या नहीं उत्पन्न हुई,किंतु जैसे- जैसे मानव की भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अनियोजित एवं अनियंत्रित विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन एवं शोषण बढ़ता गया,पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र का असंतुलन बढ़ता गया, जिससे प्राकृतिक आपदाओं में भी निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। मानव पर पर्यावरण के प्रभाव एवं पर्यावरण पर मानव के प्रभाव दोनों में बदलाव आता गया, जिसके परिणामस्वरूप अनेक तरह के बढ़ते घातक प्रदूषण तथा ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन के चलते मानव एवं प्रकृति के अंतर्संबंधों में भी बदलाव आता गया। मानव के कारनामों के चलते हरितगृह प्रभाव एवं ओजोन परत के क्षयीकरण ने इसमें अहम् भूमिका निभाई, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र में तीव्रता के साथ बदलाव आता गया , कारण कि पारिस्थितिकी के विभिन्न कारक तेजी से समाप्त होते गये, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन बढ़ता गया और मानव वातावरण के अंतर्संबंधों में भी बदलाव आता गया।
आज आवश्यकता इस बात की है कि यदि हमें पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी को बचाना है तो प्रकृति के समाप्त हुए घटकों की पुनर्बहाली करनी होगी।हमें विकास के ऐसे पथ को अपनाना होगा, जिसमें हमारा विकास भी चिरस्थाई हो एवं प्रकृति के कारकों की क्षति भी कम से कम हो। इसके लिए मानव को प्रकृति के साथ समायोजन करना होगा, उसे अपने हितलाभ हेतु प्रकृति के कारकों का समूल दोहन एवं शोषण करने से बचना होगा। तभी प्रकृति के कारकों को सुरक्षित एवं संरक्षित रखा जा सकेगा।
वर्तमान समय में प्रकृति को बचानेका एकमात्र सार्थक उपाय जल, जंगल, जमीन एवं जीव को बचाना है। खासतौर से जैविक विविध को समृद्ध करना होगा। इसके लिए हमें अपनी उपभोग की जीवन शैली में बदलाव लाना होगा। अपनी आवश्यकताओं पर अंकुश लगाना होगा। और इन सबके लिए हमें अपनी सनातन संस्कृति पर आधारित जीवन शैली को अपनाना होगा। हमें जन-जागरूकता लाकर जन- जन को वृक्ष लगाने हेतु प्रेरित करना होगा। हमें प्रत्येक त्यौहारों,उत्सवों, जन्मदिन, वैवाहिक दिवस एवं श्राद्ध कर्म के अवसर पर अवश्य वृक्ष लगाकर प्रकृति को समृद्ध बनाना होगा।
जहां तक बलिया सहित पूर्वांचल की बात है तो इस क्षेत्र के अधिकांश जिलों में प्राकृतिक वनों का बिल्कुल अभाव है। बलिया तो प्राकृतिक वनस्पति की दृष्टि से वन शून्य क्षेत्र है। बलिया में मानव रोपित वृक्षावरण भी दो प्रतिशत से भी कम है। जबकि तैंतीस प्रतिशत क्षेत्रफल पर वनों का होना आवश्यक है। अत: वन शून्य ऐसे क्षेत्रों मैं वृक्षारोपण ही एकमात्र उपाय है, जिसके लिए जन- जन की सहभागिता आवश्यक है।
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