Wednesday, March 20, 2024

वृक्षारोपण को जीवन शैली का बनाना होगा अंग



अब भी नहीं चेते तो भुगतना पड़ेगा भयंकर परिणाम: डाॅ०गणेश पाठक
भारतीय संस्कृति में वन एवं वन्यजीव संरक्षण की संकल्पना कूट - कूट कर भरी पड़ी है। हमारी संस्कृति सनातन संस्कृति है, अरण्य संस्कृति है,जिसमें सामंजस्य, स्वभाव, सहयोग एवं सहजीवन की भावना निहित है। इसी भावना से प्रेरित होकर हम वन एवं वन्य जीवों की सुरक्षा एवं संरक्षा करते आ रहे हैं, किंतु आधुनिक काल में मानव की भोगवादी प्रवृत्ति, विलासिता पूर्ण जीवन एवं अनियोजित एवं अनियंत्रित तरीके से किए जा रहे विकास ने वनों का इस तरह से सफाया किया कि अब पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती जा रही है। 
       
         21 मार्च, विश्व वानिकी दिवस पर विशेष

वनों के विनाश का चतुर्दिक दुष्प्रभाव दिखाई देने लगा है। प्राकृतिक आपदाओं,ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, अति वृष्टि, अनावृष्टि अर्थात् बाढ़ एवं सूखा, भू-क्षरण, मौसम में बदलाव एवं वायु प्रदूषण में वृद्धि जैसी समस्याओं में वन विनाश के चलते अतिशय वृद्धि होती जा रही है, जिससे मानव का जीवन दुष्कर होता जा रहा है।

                डॉ गणेश पाठक (पर्यावरणविद)

 हमारी भारतीय संस्कृति में वनों के प्रति विशेष प्रेम,अनुराग एवं रक्षा का भाव था। वृक्षों में देवता का वास मानकर उनकी पूजा करने की परम्परा आज भी कायम है। महत्वपूर्ण वृक्षों, लताओं एवं झाड़ियों पर देवी- देवता का वास मानकर उनकी पूजा का विधान बनाए दिया गया ताकि उनको कोई विनष्ट न करें। यही नहीं भारतीय संस्कृति वृक्षारोपण के लिए त्यौहार भी मनाया जाता है, जिसे 'ब्राह्मण पर्व' कहा जाता है। अर्थात वृक्षारोपण को 'ब्रह्म कर्म' के समान मानकर महत्व प्रदान किया गया है और इस दिन प्रत्येक व्यक्ति को पौधारोपण करने का विधान बनाया गया है। हमारे वैदिक ग्रंथों में वृक्ष काटने पर दण्ड का विधान बनाया गया है। वृक्षों को देवता मानते हुए 'वृक्ष देवों भव' कहा गया है। एक वृक्ष लगाने का महात्म्य दस पुत्र उत्पन्न करने के बराबर माना गया है। मत्स्य पुराण में उल्लेख मिलता है कि जो व्यक्ति पौधारोपण करता है, वह तीस हजार पितरों का उद्धार करता है। किंतु अफसोस पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगकर हम अपनी संस्कृति की मूल अवधारणाओं को भूलते जा रहे हैं और अंधाधुंध वन विनाश की तरफ अग्रसर हैं,जो हमारे लिए विनाशकारी सिद्ध हो रहा है।

 हमारे भारतीय संस्कृति में वास्तु शास्त्र के अनुसार वृक्ष लगाने का विधान बनाया गया है, किंतु अब इसका भी पालन नहीं हो रहा है, जिसका खामियाजा हमें भुगतना पड़ रहा है। यही नहीं हमारा आयुर्वेद ज्ञान अति प्राचीन है, जिसमें सभी प्रकार के वृक्षों, झाड़ियों एवं लताओं के औषधीय गुणों का वर्णन है। वनस्पतियां आयुर्वेद की प्राण हैं।किंतु हम इस ज्ञान से भी विमुख होते जा रहे हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वृक्षों से ही हमें आक्सीजन प्राप्त होता है। कोरोना काल में हम आक्सीजन के महत्व को समझ चुके हैं,फिर हममें वृक्षारोपण के प्रति चेतनता नहीं आ रही है। एक वृक्ष अपने पचास वर्ष के जीवन काल में लगभग पन्द्रह लाख रूपए से अधिक का लाभ देता है। 

बलिया सहित पूरे पूर्वांचल के जिलों में है वनों का अभाव
यदि हम पूर्वांचल में वन क्षेत्र की स्थिति को देखें तो सोनभद्र एवं मिर्जापुर को छोड़कर शेष जिलों में वन क्षेत्र की स्थिति बेहद खराब है। किसी भी जिले में कुल भूमि के चार प्रतिशत से अधिक वन क्षेत्र नहीं हैं। यदि बलिया जिले की बात करें तो इसकी स्थिति अति भयावह है। बलिया जिले में तो प्राकृतिक वनस्पतियां शून्य हैं। जो मानव रोपित वनस्पतियां हैं ,वो कुल भूमि के मात्र 1.54 प्रतिशत ही है जबकि 33 प्रतिशत भूमि पर वनों का होना आवश्यक है। बलिया ज़िला में 2019, 2020 एवं 2021 में क्रमश: 35.18, 31.00, 23.98 एवं 43.16 लाख पौधे लगाए गए थे। किंतु उचित रख -रखाव एवं संरक्षण के अभाव में इनमें से आधे से अधिक सूख गये, जिससे वृक्षारोपण का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा है।

 उपर्युक्त तथ्यों को देखते हुए आवश्यकता इस बात की है कि वृक्षारोपण को जनांदोलन बनाया जाय। इस आन्दोलन में जन -जन की सहभागिता सुनिश्चित की जाय। वृक्षारोपण सिर्फ सरकार का याहवन विभाग का ही कार्य नहीं है, बल्कि हम सबका पुनीत कर्तव्य बनता है कि न केवल पौधारोपण करने, बल्कि उसकी रक्षा करने की जिम्मेदारी भी हम उठाएं। हमें वृक्षारोपण को एवं उसके संरक्षण तथा रख- रखाव को अपनी जीवन -शैली का अंग बनाना होगा, अन्यथा हमें अभी और अधिक भयंकर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।

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